मुगल चित्रकला पर क्या यूरोपीय प्रभाव पड़ा in HINDI

मुगल चित्रकला  पर यूरोपीय प्रभाव =>


 भारतीय चित्रकला के विकास में मुगलों का विशिष्ट योगदान रहा है।  मुगल शासकों के द्वारा करवाई  गई चित्रकारी में ईरानी    और फारसी प्रभाव  स्पष्ट दिखाई देता है। मुगल चित्रकला शैली के विषय मुख्यतः शाही दरबार, सांस्कृतिक दृश्य, युद्ध  दृश्य, पौराणिक कथाएं तथा प्राकृतिक जीवन से सम्बन्धित होती है थी। इसके अतिरिक्त ये भारतीय  प्राकृतिक  जीवन से सम्बन्धित होती थी।  जैसे- पीपल, आम, बरगद आदि वृक्षों तथा  हिरन, शेर , मोर  आदि पशु- पक्षियों  और भारतीय वस्त्राभूषणों को बड़े संजीव रूपों में चित्रित किया गया है। मुगल चित्रकला का जनसाधारण से कोई  सम्पर्क  नहीं था।  इसके संरक्षक और प्रतिपादक केवल शाशक  वर्ग के अमीर उमराव या शाही  शहजादे रहे । दरबार के बाहर इसके विषय में लोगों को बहुत कम ज्ञान था । 

भारत प्रारंभ में  मुगल शैली की चित्रकला का  जन्म हुमायुं   शासनकाल में हुआ था। शेर शाह से पराजित होने के बाद हुमायूँ ने फारस और अफगानिस्तान में अपने निर्वासन के दौरान  मुगल चित्रकला की नीव रखी थी। फारस में  हुमायूँ की मुलाकात दो चित्रकारों से मीर सैय्यद अली एवं ख्वाजा अब्दुसमद से हुई। इन्होंने ही  मुग़ल चित्रकला की  नींव रखी।  आगे चलकर अकबर के शाशनकाल में चित्रकला की मुगल शैली अपने सर्वोत्कृष्ट स्थान  पर पहुँच गयीं  । इस की काल में चित्रकारी सामूहिक रूप से की जाती  थी।  जिसमें एक से अधिक चित्रकार मिलकर किसी चित्र का निर्माण करते थे।  फलस्वरूप चित्रकला की मुगल शैली स्वदेशी  भारतीय चित्रकला शैली और फारसी चित्रकला की सफावी  शैली के संश्लेषण के रुप विकसित हुई ।

मुगल चित्रकला पर  यूरोपीय प्रभाव 

मुगलों के साथ यूरोपीय व्यापारियों एवं धर्म प्रचारकों के सम्पर्क ने मुगलकालीन  चित्रकारों को भी प्रभावित किया। मुगल चित्रकारों ने यूरोपीय शैलियों के प्रभाव में बाइबिल एवं ईसाई धर्म संबंधी विषयो के रूप में  पिता रूप में ईश्वर, आदम और होवा तथा  पिलेट के दरबार में जिसेस का मुकदमा  आदि को चुना।   इसका प्रारम्भ अकबर के समय में हुआ  था, किन्तु जहांगीर व् शाहजांह के समय में इसका   विशेष प्रयोग किया  गया। मुगल कालीन युरोपीय चित्रों के महत्वपूर्ण तथ्यों का अध्ययन कर उन्हें अपने चित्रों में संजोने वाले महत्वपुर्ण  चित्रकारों में मिस्किन, दौलत, बसावन,  केशवदास,अबुल हसन प्रमुख थे। 

दककनी  चित्रकला

 दककनी  चित्रकला के अन्तर्गत बीजापुर,गोलकुण्डा  और अहमदनगर प्रमुख केंद्र थे। बीजापुर के दो प्रमुख शाशको अली  आदिलशाह प्रथम और  उसके उत्तराधिकारी इब्राहिम शाह द्वितीय में कला और संगीत को पर्याप्त संरक्षण दिया । इनके फलस्वरूप ही बीजापुर में  चित्रकला  शैली का विकास हुआ। 
प्राचीनतम दक्कनी  चित्रों में अधिकांशत: तारीक-ए- हुसैन शाही  की अपूर्ण पाडुलिपि के अंश है।   इन चित्रों की रचना 1565 से 1595 के बीच हुई थी। गुलाबी, लाल और पीले ,नीले , सुनहरी, कासनी, और पीले रंग की विलक्षण पट्टिएकाओं में लंबी  और राजसी महिलाएं  रंगीन साडियां पहने चित्रित हैं। 16 वीं सदी के अंतिम दशक में बीजापुर के राग और रागनियों के कुल उत्कृष्ट चित्र त्यार किये गए हैं। यह चित्र हिण्डोला  राग का है और इसे सर्वकालिक संगीत विषयक सर्वोत्तम चित्र मन गया है। 

लोक प्रचलित मुगल चित्रकला 

शाही चित्रणशाला  से बाहर भी अनेक लघु- चित्र बनाए जा रहे थे। यह  चित्र मुगल चित्र  शैली व् भारतीय परम्पराओं  का मिला- जुला रूप था। जिसकी अभिव्यक्ति  सरल और सीधी-सादी होती थी। ये  चित्र दीन-हीन लोक कलाकारों द्वारा चित्रित  किए गए थे।  इन्हें दरबारियों व् अमीरों का संरक्षण प्राप्त  होता।   अजीजकोका और अब्दुर्रहीम खानेखाना जैसे सुप्रसिद्ध दरबारियों के अपने पुस्तकालय और निजी  शिक्षणशालाएं थी।  खान -ए-खाना चित्रणशाला में रजमनामा, रामायण, शाहनामा व्  जफरनामा  आदि के  अतिरिक्त अनेक हस्तलिखित ग्रन्थ और  उनके चित्र तैयार किये गए  थे। लोक प्रचलित मुगल शैली के  चित्रों की  विषय वस्तु रागमाला  चित्रावलियाँ तैयार करना अथवा सामयिक  विषयों का  चित्र बनाना था। इस लोकप्रचलित शैली की कुछ प्रसिद्ध कृतियों में नल- दमयनतीकथा ,माधवनल या रसिकप्रिया आदि हैं। 

राजस्थानी चित्रकला

राजस्थानी चित्रकला मुख्यत: देशी अपभ्र्श शैली का विकसित रूप है। यह कला मुख्य रूप से   राजपूताना  के राजाओं के संरक्षण में फली- फूली, इस कारण   इसे राजपूत शैली भी  कहा जाता है। राजस्थानी चित्रकला मुख्यरूप तीन प्रकार की  मिलती  हैं।- दरबारी, साहित्यिक और लोककला संबंधी  | दरबारी शैली के चित्रों  में राजस्थान के देशी रियासतों के राजाओं या शाशकों के छवि चित्र  सम्मिलित हैं। 
साहित्यिक कृतियों अन्तर्गत रसमंजरी, रसिकप्रिया, रुम्मणी वेली, रामायण , पुराण, भगवत गीता महामात्य आदि  शामिल हैं। 
लोक  कला संबंधी चित्रों के अन्तर्गत दैनिक जीवन, तीज त्यौहारों व्  धार्मिक अनुष्ठानों से सम्बन्धित चित्र उपलब्ध हैं।  प्रधान आंचलिक और शैलीगत भेदों के अनुसार  राजस्थानी चित्रकला को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है - (1) मेवाड़ शैली, 2. आगेर- जयपुर, शैली ,3.  मारवाड़ शैली, 4. बूंदी कोटा शैली।
इनमें मेवाड़ शैली , सिसौदिया, आमेर जयपुर शैली, कछवाह शैली,मारवाड़ शैली राठौर व बूंदी -कोटा शैली हाड़ा  शाशको के अधीन विकसित हुई। 

मेवाड़ शैली (कलम )

इस शैली के प्रमुख केंद्र चित्तोड़ ,उदयपुर ,नाथद्वार,देवगढ़ ,सिरोही व सावर  आदि है। इस शैली की शुरुआत राणा अमर सिंग के समय में हुई। मेवाड़ के शाशको में राणा  कुम्भा व राणा सांगा कला , स्थापत्य कला ,साहित्य और संगीत के महान संरक्षक थे।  मेवाड़ का शक्तिशाली शाशक राणा प्रताप था।  जो एक योद्धा होने के साथ -साथ एक कला प्रेमी भी था। उसने एक विलक्ष्कृति रागमाला को 1605 ई.में छावंद  में चित्रित करवाया था। मेवाड़ का शाशक जगतसिंग (1628 -52 ) जो कला और स्थापत्य  का महान संरक्षक था। 
राणा जगतसिंग के काल में मेवाड़ी चित्रकला का चर्मोंतकर्ष विकास हुआ था। इस कल में चित्रित ग्रंथों में शाहबदीन द्वारा चित्रित रागमाला,गीतगोविन्द, रसमंजरी, रसिकप्रिया है। 

बूंदी शैली (कलम )  

 बूंदी कोटा शैली हाड़ा शाशको के अधीन पनपी।  इसके प्रमुख केंद्र  बूंदी कोटा और झालावाड़ है।  इसके  चित्रों की  रंग व्यवस्था समृद्ध और चटकीली है।  सामान्यतः स्त्री आकृतियां लम्बी  और छरहरी हैं जिनके स्तन पुष्ट और कटि झीण  हैं।  जो  तंग और छोटी चोली या रंगीन  घाघरा पहनती है।  स्त्रियों की मुखकृतियों में  में तीखी और  नोकदार नासिका ,दलुवा  ठोड़ी, पडोल  की आकृति वाली आँखें  और शरीर का रंग हल्का बादामी  है। उपवनों में घनी हरियाली दिखानें   के लिए आम, पीपल,कदली -माछ तथा  पुष्पित बेले व  पशु-पक्षी चित्रित किये गये हैं। बूंदी  शैली की विषय वस्तु में कलानुसार परिवर्तन होता रहा है। साहितिक कृतियों के अलंकरण के साथ-2 आखेट,
मनोरंजन या दरबार के  दृश्यों का चित्रण  पर्याप्त मात्रा में हुआ है। 

कोटा शैली 

कोटा शैली के आश्रयदाता  उम्मेद सिंह थे।  हंसराज जोशी ,मुमानी , शेख लागू और उसके पुत्र मान कोटा शैली  के प्रमुख चित्रकार थे।  कोटा चित्रकला अनुपम उदाहरण आखेट दृश्यों वाले चित्र हैं। आखेट, हाथियों की लडाई,राजा - महाराजाओं  के छविचित्र प्रदर्शित करने वाले अनेक चित्र कोटा शैली के अन्तर्गत बनाए गए हैं । कोटा की  चित्रकला. में भू. दुश्यों के अंकन में  पूर्ण  सहजता दिखाई पड़ती है, जैसे चारों और पथरीली चट्टानें, विशेष आकार वाले  पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और उन सबके बीच कोटा नरेश  और उसके आश्रित व्यक्ति बिखरे दिखाए गए हैं। 

आमेर -जयपुर शैली 

आमेर जयपुर शैली कछवाहा राजपूतों के अधीन विकसित हुई। इस शैली के चित्रकारी के  प्रमुख केन्द्र आमेर,जयपुर ,अलवर  आदि थे। चित्रकला की आमेर शैली का जन्म  (1589-1614)ई राजा  मानसिंह के काल में हुआ।   मानसिंग कालीन साहित्यिक कृतियों में रागमाला विषयक , भित्ति -चित्रों का भगवत पुराण बारहमासा ,नायक -नायिका भेद के दृश्यों का चित्रण मिलता है।  

मारवाड़ शैली 

मारवाड़ शैली का  विकास राठौर शासकोंके अधीन  हुआ था।   मारवाड़ कलम-चित्रकारी के  प्रमुख केन्द्र बीकानेर, जोधपुर, किशनगढ़, जैसलमेर, अजमेर, पाली तथा धाणेराय हैं। महाराजा अजीतसिंह और उसके उत्तराधिकारी अभयसिंह तथा रामसिंह के शासनकाल में मारवाड़ चित्रकला शैली पूर्ण  विकास हुआ। इस काल  में चित्रित महत्वपूर्ण साहित्यिक कृत्तियों में गीत गोविन्द, खोलामारू,, रागमाला बारहमासा आदि प्रमुख है। 

बीकानेरी शैली

बीकानेर के राजाओं में कर्ण सिंह कला -प्रेमी  तथा कलाकारों  का आश्रयदाता था। अन्य महत्वपूर्ण चित्रकारों में सक्नुद्दीन शाहदीन, हमीद अहमद, साहिबदीन, रशीद, कासिम, शाह  मुहम्मद आदि प्रमुख थे । बीकानेरी  शैली अन्य राजस्थानी शैलियों के सर्वाधिक निकट थी।   इसके अतिरिक्त इस शैली  के चित्रो और दकनी चित्रों  में गहरी समानता  भी दिखाई देती है।  बिकानेरी शैली की चित्रकारी में स्त्री  आकृतियां दुबली- पत,बड़ी -बड़ी आँखें और पतली  कमर काली सुंदरियों की हैं।  


किशनगढ़ शैली

 किशनगढ़ अजमेर व  आमेर के मध्य स्थित एक  छोटी सी  रियासत थी ।  यहां मारवाड़ के राठौरों की ही एक शाखा थी।  इस रियासत की स्थापना जोधपुर  नरेश उदयसिंह के पुत्र किशनसिंह (1609-1615 ई.) ने किया था । किशनगढ़ के  सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण शासक नरेश सावंत  सिंह था । इसी के काल में मारवाड़  शैली को उत्कर्ष प्राप्त हुआ। वह  कविता भी करता था  तथा राधा- कृष्ण की आराधना के लिए  भक्ति - संगीत की रचना की थी।      उसका उपनाम नागरीदास था ।

  पहाड़ी लघु चित्रकारी

पहाड़ों में प्रचलित चित्रकारी की सभी शैलियों को पहाड़ी चित्रकारी के नाम से जाना जाता है। इसके अन्तर्गत उत्तर- पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के विभिन्न पहाडी राज्य सम्मिलित है जिनमें वर्तमान हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और उत्तर प्रदेश का टेहरी गढ़वाल क्षेत्र आता है।   पहाड़ी लघु चित्रकला की दो शैलियों बसौली कलम और कांगडा कलम के नाम से जानी जाती है। इसके अतिरिक्त  गढ़वाल स्कूल भी महत्वपूर्ण है ।



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