सूफीमत के सोपान और सूफी सिलसिले in HINDI
सूफ़ीमत के सोपान और सूफी सिलसिले
★ सूफीमत के सोपान
सुफीमत के साधक या विद्यार्थी को अपने अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रेम रूपी मार्ग पर चलना पड़ता है । सूफी मत रूपी भवन प्रेम पर ही आधारित है । वे ईश्वर को प्रेम एवं संगीत के जरिये प्राप्त करने का प्रयास करते थे। प्रेम के मार्ग पर चलकर सूफी विभिन्न अवस्थाओं एवं विभिन्न अवस्थानों को पार करते हुए अपने अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति करने का प्रयास करते थे । सूफीमत के मुख्य सोपान इस प्रकार हैं ।
1. अबूदियत - मनुष्य की, वह अवस्था होती है, जिसके अन्तर्गत साधक में मानव के सभी गुण विद्यमान होते हैं ।
मनुष्य स्वभाव में कामी, क्रोधी, लालची और सांसारिक बन्धनों में जकड़ा होता है । इसलिए साधक को आवश्यक होता है कि वह इन दुर्गुणों से तौबा कर उन्हें नष्ट करें। इन्हें समाप्त किए बिना कोई भी साधक अथवा सूफी अपने अन्तिम लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता।
2. शरीयत → प्रत्येक सूफी अथवा साधक अर्थात् शिष्य के लिए शरीयत (इस्लाम के नियमों का अनुसरण करना ) आवश्यक माना जाता है । पवित्र कुरान के अनुसार : " ईश्वर की आज्ञा का पालन करो, पैगम्बर की आज्ञा का पालन करो, और उनकी आज्ञा का पालन करो जो तुम्हारे बीच शासक हो ।" विद्यार्थी का प्रथम कर्तव्य यह होता है कि वह सभी पापों से तौबा करें और तत्पश्चात के वह शरीयत के अनुसार नमाज, रोजा, जकात, हज आदि का पालन करे। ऐसा करने से अहंकार, अदानशीलता , क्रोध, आदि बुराइयों का नाश हो जाता है और वह 'इश्क ए खुदा' में लीन हो जाता है । इसके बाद वह अन्य अवस्था में प्रवेश करता जाता है । जिसे 'तरीकत' कहा जाता है ।
3. तरीकत - इस अवस्था में साधक अर्थात् विद्यार्थी को पीर या गुरू की अत्यन्त आवश्यकता होती है। गुरु उसे आचरण की शुद्धता एवं मानव प्रवृत्तियों पर अधिकार करने की शिक्षा देता है। पीर के निर्देशों से ही ईश्वर की अनुभूति संभव है। साधक का यह भी कर्तव्य है कि वह अपने गुरु से सर्वाधिक प्यार करे और उसकी सेवा में हमेशा लीन रहे। एक अच्छे शिष्य को हमेशा अपनी गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए । मुहम्मद साहब ने अपने आपको इस्लाम में समर्पित करने की शिक्षा दी। जबकि सूफीमत शेख (गुरू) में समर्पित करता है जो पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है । जब शिष्य 'तरीकत' के सभी नियमों पालन करके पीर को संतुष्ट कर देता है तो पीर उसको 'खिरका' अर्थात् सूफी वरूत्र प्रदान करता है।
4. मारिफत - इस अवस्था में शिष्य को ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के लिए तर्क को त्यागना पड़ता है। उसे बुद्धि और प्रदर्शन को तिरस्कृत करना पड़ता है । अचल आत्मा केवल ईश्वर की दया में ही सुख अनुभूति करती है । कुरान में ईश्वर ने कहा है, "मैंने जीन और मानव की सृष्टि केवल इसलिए की है कि वे मेरी उपासना करें और इस प्रकार वे मुझे जाने।" अतः ईश्वर की दयालुता तथा कृपा के द्वारा ही साधक को मारिफत की अवस्था प्राप्त होती है। इस अवस्था में साधक ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति को आतुर हो जाता है ।
5. हकीकत - इस अवस्था में शिष्य को सात्विक ज्ञान की प्राप्ति होती है। सूफीमत का उद्देश्य आन्तरिक शुद्धता एवं ईश्वर का मिलन है । जो स्वत: प्रयत्नों से सम्भव नहीं है । ज्ञान ईश्वरीय देन है और वह उसी को प्रदान करता है, जिससे वह (ईश्वर) प्रसन्न हो जाता है। ज्ञान पूरी तरह ईश्वर की दया पर निर्भर है। कुरान के अनुसार मनुष्य को ईश्वर के दर्शन नहीं तक उसे उसकी भक्ति में लीन रहना चाहिए।
6. फना - फना की अवस्था को सूफी स्वतः के विनाश की अवस्था कहते हैं । इस अवस्था को 'फना- फि- अल्लाह' अर्थात् ईश्वर में विलीनीकरण अवस्था कहते हैं।
7. बका - फना की अवस्था के साथ ही सूफी अन्तिम अवस्था में प्रवेश करता है, जिसे बका की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में प्रेमी (सफी) एवं प्रियतमा (ईश्वर) के बीच के समस्त भेद समाप्त हो जाते हैं और दोनों एक रूप हो जाते हैं।
सूफी सिलसिले
सूफीमत का विश्व के विभिन्न देशों में विकास हुआ । बारहवीं शताब्दी के पश्चात् इसका प्रसार भारत में भी हुआ । अफगानिस्तान के रास्ते अनेक सूफी सिलसिलों से संबंध रखने वाले लोग भारत आये। आइने अकबरी में अबूल फजल ने 14 सिलसिलों का उल्लेख किया है। प्रत्येक सिलसिलों के सूफियों ने अपनी परम्पराओं को सुरक्षित रखने प्रयास किया। सूफी सिलसिलों उल्लेख इस प्रकार है -
1. चिश्ती सिलसिला - मध्यकालीन भारत में चिश्ती सम्प्रदाय का बहुत विकास हुआ । इस सम्प्रदाय के संस्थापक ख्वाजा अबू थे। भारत चिश्ती सम्प्रदाय की स्थापना सिजिस्तान निवासी ख्वाजा मुईनुदीन चिश्ती ने की। वे 1193 ई. में भारत आए और उन्होंने अजमेर में निवास करना आरम्भ किया । वे बहुत दयालु एवं मानवतावादी थे। उनके पंथ का हिन्दुओं पर भी बहुत प्रभाव पड़ा । उन्होंने अजमेर में अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया | अतिशीघ्र ही अनेक लोग उनके शिष्य बन गये। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा कुतूबुद्दीन, बख्तियार काकी , ख्वाजा फरीकउद्दीन मसूद, गंजशंकर, निजामुद्दीन औलिया , बाबा फरीद आदि जैसे सूफी संत चिश्ती सिलसिले से जुड़े हुए थे। इससे प्रमुख सिद्धान्त समाज सेवा , मानव सेवा , आत्मनिंदा पर ध्यान न देना, अपराधी को क्षमा करना और सांप्रदायिकता को तिलांजलि देना आदि था । वे पूरी तरह से "वहदत उल- वुजूद " का पालन करते थे।
2. कादरी सिलसिला → कादरी सम्प्रदाय की स्थापना बगदाद के शेख मुहाउद्दीन कादिर जिलानी ने की। उसकी गणना महान सूफी सन्तों में की जाती थी। वे अबू सईद मुबारक के मुरीद थे । शेख अब्दुल कादिर जिलानी ने ' पीरान-ए-पीर', 'महबूब-ए- सुभानी', 'पीर-ए- दस्तगीर' आदि 99 से अधिक उपाधियां प्राप्त की। भारत में कादरी सम्प्रदाय का प्रसार शाह नियामत उल्ला और मखदूम जिलानी ने 15वीं शताब्दी में किया । मखदूम जिलानी ने उच्च (सिन्ध) को अपनी शिक्षा का केन्द्र बनाया। इसके पश्चात उनके पुत्र मखदूम कादिर जिलानी तथा पौत्र शेख हमीद गंजबक्श ने कादरी सम्प्रदाय का प्रचार किया। इसके पश्चात् कई सूफी संत हुए। इनमें शेख अब्दुल कादिर, शेख मूसा और दारा का नाम भी प्रमुख रूप से लिया जाता है। दारा ने 'तसव्वुफ़ ' की शिक्षाएं प्राप्त की। दारा ने तसव्वुफ़ पर कई पुस्तकें लिखी । जिनमें 'सफीनत- उल- औलिया', 'सफीनत-उल- औलिया' में सूफी सन्तों की जीवनियों का वर्णन है। दारा ने हिन्दू और इस्लाम धर्म के बीच समन्वय बनाने का प्रयास किया।
3. सुहरावर्दिया सिलसिला - शेख शहाबुद्दीन सुहरावर्दी इसके प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने शिष्यों को भारत जाकर उनके उपदेशों, सिद्धान्तों का प्रचार करने की प्रेरणा दी। भारत में सबसे पहले सुहरावर्दिया सिलसिला का प्रचार शेख बहाउद्दीन जकारिया ने किया। इसने भारत आकर मुल्तान में अपना खानकाह बनाया और यहीं से उन्होंने अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया। शेख बहाउद्दीन जकारिया के बाद उनके पुत्र शेख सदरुद्दीन और उसके बाद शेख रूक्नुद्दीन ने सुहरावर्दिया सिलसिला का प्रचार -प्रसार किया। इसके पश्चात् शेख मूसा और शाह दौला दरियाई जैसे सूफियों ने सुहरावर्दिया सिलसिला का प्रचार किया। शाह दौला ने तसव्वुफ़ (सुफीमत) प्रभावित होकर अपना सब-कुछ त्याग दिया। उसके बारे में कहा जाता था, "जिसको न दे मौला, उसको दे दौला ।"
4. नक्शबन्दी सिलसिला - नक्शबंदी सिलसिला की स्थापना 14वीं शताब्दी में ख्वाजा बहाउद्दीन ने की । उन्होंने अकबर और जहाँगीर के दरबार की यात्रा की थी । 1642 में इनकी मृत्यु हो गई। उनके पश्चात् 17वीं शताब्दी में नक्शबंदी सिलसिले का प्रचार ख्वाजा बाकी विल्लाह ने किया। उन्होंने मुहम्मद साहब की शिक्षाओं का पालन करने पर बल दिया और इस्लाम में प्रचलित बुराइयों का विरोध किया । ख्वाजा बाकी विल्लाह के शिष्यों में शेख अहमद फारूख सरहिन्दी प्रमुख थे। इन्हें इस्लाम धर्म का सुधारक माना जाता है । इन्होंने इब्न- उल- अरबी के 'मानव एकता की विचारधारा का खण्डन' किया। शेख अहमद फारूख सरहिन्दी प्रभावशाली व्यक्तित्व के थे। उन्होंने कहा , 'संसार की सृष्टि ईश्वर ने की है और उसकी तुलना उसके प्राणियों से नहीं सकती'। उन्होंने वजूदिया और शहुदिया विचारधाराओं समन्वय किया। इसके पश्चात् ख्वाजा मासूम व ख्वाजा मीर दर्द नक्शबंदी आदि सूफी जिन्होंने 'वहदत-उल- वुजूद' और 'वहदत - उल- शुहूद' सिद्धान्तों का पालन किया।
5. शत्तारी सिलसिला - इस शाखा की स्थापना अब्दुल्ला शत्तार ने 1415 में की। इसे मध्य एशिया एवं ईरान में इश्किया तथा तुर्की में' 'बिस्तामिया' के नाम से जाना जाता था। शाह अब्दुल्ला शत्तार की पदवी उनके पीर शेख मुहम्मद आरिफ ने दी। वे 15वीं शताब्दी में भारत आए । उन्होंने मोहम्मद अली को अपना शिष्य बनाया । 1485 में माण्डू में शाह अब्दुल्ला का देहान्त हो गया ।
ग्वालियर में शाह मोहम्मद गौस ने शत्तारी सिलसिला का प्रचार किया। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की स्थापना की। उन्होंने जवाहिए- ए- सम्मा' और 'अवराद-ए-गौसिया' नामक पुस्तकों की रचना की। शत्तारी सिलसिला का प्रभाव हिन्दुओं को पर भी पड़ा। शाह मुहम्मद गौस को उस समय 'कुत्ब' कहा जाता था। इसके पश्चात् शाह वजीरउद्दीन, शेख बुरहानुद्दीन आदि ने इस सम्प्रदाय प्रचार किया ।
6. कलंदरिया सिलसिला - कादरी सम्प्रदाय प्रवर्तक बगदाद के शेख अबुल कादिर जिलानी (1077- 1166ई•) थे । भारत में इस सम्प्रदाय का प्रचार मखदूम महम्मूद जिलानी और शाह नियामतुल्ला ने किया । सैयद बन्दगी मुहम्मद ने 1482ई• में सिन्ध को इस सम्प्रदाय का प्रचार केन्द्र बनाया। वहाँ से कालान्तर में यह सम्प्रदाय कश्मीर, पंजाब, बंगाल और बिहार तक फैला । इस सम्प्रदाय के अनुयायी संगीत के विरोधी थे।
7. मादरी सिलसिला - इस सिलसिला के प्रवर्तक शेख बदीउद्दीन शाह मदार थे। बाल्यावस्था में इनके माता- पिता का देहान्त हो गया था। कालान्तर वे मोहम्मद तैफूरी विस्तामी के मुरीद हो गये । वे अपने पीर के आदेश पर मक्का चले गये । जहाँ कुछ दिन रहकर उन्होंने धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया | कहा जाता है कि एक दिन उन्हें दैवीय आदेश मिला जिसके अनुसार वे मदीना चले गए। वहां उन्हें पैगम्बर मुहम्मद की वाणी सुनाई दी कि 'तुमको शान्ति मिलेगी, ए बदीउद्दीन शाह मदार । ईश्वरीय इच्छा है , तुमको शीघ्र लक्ष्य प्राप्ति होगी।' अन्त में शाह मदार भारत चले गए । इसके प्रमुख सन्त 'अब्दुल कादिर जिलाली' थे ।
★ निष्कर्ष -> उपरोक्त वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं कि सूफीवाद के आंदोलन से इस्लाम का प्रचार जोर - शोर से हुआ | अनेक लोगों ने इसको ग्रहण किया । सूफी कवियों ने इस्लाम में फैली बुराइयों का खण्डन किया व शुद्ध विचारों, कर्म पर बल दिया। सुफी कवियों ने 'वहदत - उल - वजूद' का पालन किया। सुफी कवियों अनुसार प्रेम के और ईश्वर की इबादत कर वह उसे प्राप्त कर सकता है ।
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