सूफी मत की शिक्षाएँ (Teaching of Sufism) in HINDI
सूफी मत की शिक्षाएँ (Teaching of Sufism)
1. अल्लाह एक है - सूफियों के अनुसार परमात्मा एक है, जिसको ये अल्लाह कहते हैं । वह सर्वोच्च सर्वव्यापक तथा शक्ति-शाली है। प्रत्येक स्थान पर उसका आदेश चलता है तथा कोई भी उसकी आज्ञा के विरुद्ध नहीं जा सकता वह प्रत्येक स्थान पर उपस्थित है, वह अमर है तथा आवागमन के चक्करों से मुक्त है। वहीं इस सृष्टि का रचयिता है, इसकी सुरक्षा करने वाला तथा इसको नष्ट करने वाला है । इन कारणों से सूफी एक अल्लाह के अतिरिक्त किसी की पूजा नहीं करते हैं। कुरान का सिद्धान्त - केवल एक ही ईश्वर है। परन्तु सुफियों के हाथ में इसका आकार इस प्रकार हो, गया - "केवल ईश्वर ही वास्तविक है और कुछ नहीं ।" उनके अनुसार अत: अल्लाह मस्जिदों व मंदिरों में नहीं बल्कि मनुष्यों के हृदयों में निवास करता है।
2 . गुरु का महत्त्व - सूफी धर्म में गुरू बहुत महत्व है । इस धर्म में दीक्षित होने से पहले व्यक्ति को गुरु से शिक्षा लेनी पड़ती है। शिष्य को मुरीद कहा जाता है। शिष्यों को आश्रम में रहना पड़ता है । जहां वे पानी भरने, झाडू लगाने इत्यादि का काम करते हैं। इसके अलावा उन्हें शान्ति ध्यान तथा पवित्र शब्दों को कंठस्थ करना पड़ता है और अन्य क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। उनका है कि संसार बीहड़ जंगल के समान है जिसमें मार्ग को प्राप्त करना बड़ा दुष्कर है । इसलिए इसमें पथ- प्रदर्शक की बहुत आवश्यकता होती है। गुरु ही ज्ञान रूपी दीपक से मनुष्य को मार्ग दिखा सकता है। यदि गुरू किसी का एक बार हाथ पकड़ ले तो है वह भवसागर के पार हो जाता है। अर्थात् गुरु बिना पथ नहीं मिलता। अतः मनुष्य को निःस्वार्थ होकर अपने को गुरु के चरणों में अर्पित कर देना चाहिए।
3. पूर्ण आत्म -त्याग - अल्लाह के समक्ष पूर्ण आत्म त्याग सूफी मत के प्रमुख सिद्धान्तों में से एक है। उनके अनुसार प्रत्येक सूफी को सांसारिक मोह-माया तथा अपनी इच्छाओं को मिटाकर स्वयं को अल्लाह के समक्ष समर्पित कर देना ।ऐसा करने से मनुष्य उस अल्लाह की दया प्राप्त कर सकता है उसके बिगड़े हुए कार्य ठीक हो सकते हैं।
4. पीर - सूफी मत में पीर या गुरु को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। वह वह अपने मुरीदों की रूहानी उन्नति पर पूर्ण दृष्टि रखता है ताकि वह इस भवसागर से पार हो सके तथा वह अल्लाह के साथ एक हो सके । एक सच्चा पीर जो स्वयं सांसारिक लगाव से दूर हो तथा जिसने रूहानी ज्ञान प्राप्त कर लिया हो वही अपने शिष्यों को अन्धकार से ज्योति की ओर ले जा सकता है।
5. इबादत - सूफी अल्लाह की इबादत (पूजा) पर बहुत जोर दिया गया है। उनके अनुसार मात्र अल्लाह की इबादत करने से ही मनुष्य इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। उनके अनुसार अल्लाह की इबादत नमाज द्वारा ,रोजे रखकर तथा मक्का की यात्रा करके की जा सकती है। मनुष्य को शुद्ध हृदय से अल्लाह की इबादत करनी चाहिए।
6. कर्मकाण्डों में विश्वास - सूफीमत के लोग कर्मकाण्डों तथा झूठे रीति- रिवाजों में विश्वास नहीं रखते थे। वे नमाज, रोजे और तीर्थ स्थानों की यात्रा में विश्वास नहीं रखते थे। उनका विश्वास है ईश्वर सभी जगह निवास करता है और उसे प्रेम द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
7. संगीत में विश्वास - सूफी संत गीत तथा संगीत में विश्वास रखते थे । उनका मानना था कि गीत तथा संगीत द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जा सकती है। उलेमा (विद्वान वर्ग) के विरोध के बावजूद चिश्ती शेखों ने इस सिद्धान्त को अपने अनुयायियों में सर्वप्रिय किया । सुहरावर्दी शेख इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि संगीत के प्रभाव कारण मनुष्य के बुरे विचार नष्ट हो जाते हैं तथा वह अल्लाह समीप पहुंच जाता है। सूफियों की धार्मिक संगीत सभाओं को समा कहा जाता है।
8 कर्म में विश्वास - सूफी धर्म के शेख कर्म में विश्वास रखते थे । उनका विश्वास था कि मनुष्य के कर्म अच्छे है तो मृत्यु उसे ईश्वर के समीप ले जाएगी। यदि मनुष्य बूरे कर्म करता है तो ईश्वर और उसमें दूरी और अधिक बढ़ जाएगी । अतः ईश्वर के खोजक को पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।
9. समानता पर बल - सूफी धर्म के अनुयायी समानता पर बल देते थे। उनके अनुसार व्यक्तियों को एक - दूसरे से प्रेम करना चाहिए। वही मनुष्य अल्लाह को प्यारा है, जो अल्लाह बंदों से प्रेम करता है। सूफी संतों के अनुसार मनुष्यों के किसी बीच किसी जाति-पाति, रंग या नस्ल आदि का भेदभाव नहीं करना चाहिए। उनके अनुसार सभी मनुष्य एक ही अल्लाह की संतान है। इसलिए उनके बीच किसी प्रकार का भेदभाव करना उस सर्वोच्च अल्लाह का अपमान करना है ।
10. मक्का की यात्रा- मक्का की यात्रा करने को सूफी विशेष महत्व देते हैं ।सत्य हृदय से की गई इस यात्रा से मनुष्य इस संसार से मुक्ति प्राप्त कर सकता है तथा उसके समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं।
11. रोजे रखना - सूफी रोजे रखने में विश्वास रखते थे । ऐसा करने वाले व्यक्ति की आत्मा शुद्ध होती है। रोजे रखने से अभिप्राय मात्र खाने पीने की वस्तुओं से परहेज करने को नहीं, बल्कि प्रत्येक प्रकार की बुराइयों से दूर करने रहने के लिए कहा गया ।
12. तरक-ए-दुनिया - प्रत्येक सूफी के लिए यह आवश्यक है कि वह इस संसार से लगाव का त्याग करें। कोई व्यक्ति जितना धन सम्पदा , सुन्दर स्त्री, पुत्री-पुत्रों तथा सरकारी नौकरियों के चक्करों फंसा रहेगा उतना ही वह उस अल्लाह से दूर होता चला जाएगा । अल्लाह मिलन के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति इस सांसारिक लगाव से मीलों दूर रहे।
13. नमाज - सूफियों के अनुसार नमाज पढ़ना सर्वोच्च कर्तव्य है। इसके द्वारा मनुष्य मनुष्य का अपनी आत्मा की आवाज परमात्मा तक पहुंचा सकता है। ऐसी नमाज सच्चे हृदय से पढ़ी जानी चाहिए। अशुद्ध हृदय से पढ़ी गई नमाज को पूर्ण रूप से व्यर्थ बताया गया है। तथा कुरान में ऐसे व्यक्ति की कड़े शब्दों में आलोचना की गई है ।
14. दान - संसार के समस्त धर्मों में दान देने के संबंध में प्रचार किया गया है, परन्तु सुफी धर्म वालों ने इसको आवश्यक माना है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जिसकी अपनी आवश्यकता से अधिक आय है को कुछ भाग दान देना आवश्यक है। ऐसा एकत्रित किया गया धन निर्धनों तथा जरूरतमंदों में बांटा जाता है। मनुष्यों से सहानुभूति करने को दान का ही एक भाग समझा गया है । कुरान में निर्धनों की सेवा करने तथा गुलामों को आजाद करने को बहुत अच्छा बताया गया है।
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