Revolution of 1857 -1857 ई. का विद्रोह क्रांति IN HINDI

 1857 (Revolution of 1857) की बात करें तो इससे पहले देश के अलग-अलग हिस्सों में कई घटनाएं घट चुकी थीं. जैसे कि 18वीं सदी के अंत में उत्तरी बंगाल में संन्यासी आंदोलन और बिहार एवं बंगाल में चुनार आंदोलन हो चुका था. 19वीं सदी के मध्य में कई किसान आंदोलन भी हुए.
इस क्रांति की शुरुआत 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुई, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों से होती हुई पूरे देश में फैल गई और जनक्रांति का रूप ले लिया. ये जनक्रांति पूरी तरह ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध थी, इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा गया.
राजनीतिक कारण 

1•वेलेजली की सहायक सन्धि -   प्रारम्भ से ही कम्पनी ने देशी भारतीय राज्यों पर अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयत्न किया। वेलेजली की सहायक सन्धि इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास था। इसके अन्तर्गत भारतीय राजाओं को अपने राज्य में ब्रिटिश सेना के रख-रखाव के लिए धन का भुगतान करना होता था, जिसके बदले में ब्रिटिश सेना उनके विरोधियों से उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने का भरोसा देती थी। साथ ही, इन रेजिडेण्टों ने राज्यों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया, जिससे कम्पनी तथा राज्य के सम्बन्ध बिगड़ गए। इसके अतिरिक्त राजनैतिक असन्तोष का एक अन्य कारण मुगल बादशाह का अपमान भी करना था। 1849 ई. में यह घोषणा की गई कि मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय 'जफर' को मृत्यु के बाद उसके वंशजों को लाल किला खाली करना पड़ेगा।

2• मुगल बादशाह को अपमानित करना 

मुगल बादशाह को अपमानित करने के लिए उन्हें नजर देना, सिक्को पर नाम खुदवाना आदि परम्परा को डलहौजी द्वारा बन्द करवा दिया गया। साथ ही, बादशाह को लाल किला छोड़कर कुतुबमीनार में रहने का आदेश दिया गया। इसके अतिरिक्त कैनिंग ने 1856 ई. में घोषणा की कि बहादुरशाह के उत्तराधिकारी सम्राटों के बदले शहजादों के रूप में जाने जाएगें।

3.झाँसी का विलय -झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी।  1853 ईस्वी में झाँसी के महाराजा  बालगंगाधर राव की निःसंतान मृत्यु हो  है। पर उसने मृत्यु से पहले ही दामोदर राव को (जो गोद  गया था ) अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। परन्तु लार्ड डलहौजी ने दामोदर राव को उत्तराधिकारी मैंने से इंकार कर दिया। लार्ड डलहौजी ने लैप्स के सिद्धांत के अनुसार 1853 में झाँसी का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया। लार्ड डलहौजी की अन्यायपूर्ण नीति से न केवल झाँसी की रानी बल्कि झाँसी की जनता में भी अंग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध असंतोष की भावनाएँ फैल गयी। इस तरह झाँसी की विलय 1857 के विद्रोह का कारन बना। 

4 . अवध का विलय - लार्ड डलहौजी के अवध के शासक नवाब वाजिद अली शाह पर कुशासन का आरोप लगाकर उसे गद्दी से उतार दिया। और अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। जो की 1857 के विद्रोह का कारण बना। 

5 .डलहौजी के व्यपगत सिद्धान्त के अन्तर्गत मिलाए गए देशी राज्यों एवं 1866 ई. में कुशासन को आधार बनाकर अवध के अधिकार  से यहाँ के शासक वर्ग, स्थानीय जनता एवं सिपाहियों की प्रतिष्ठा को गहरा आघात लगा। डलहौजी ने तंजौर और कर्नाटक के नवाबों की राजकीय उपाधियों जब्त कर ली, उसने भूपतियों के अधिकारों की जांच के लिए बम्बई में इनाम कमीशन स्थापित किया, जिससे दक्कन में लगभग 20,000 जमीदारियों को जब्त कर लिया गया। इस नीति के द्वारा अनेक राज्यों को अपने अंतर्गत ले  लिया गया। जैसे सतारा ,झाँसी ,अवध ,सम्भलपुर ,जैतपुर ,बघाट आदि। 


सामाजिक और धार्मिक कारण -

1 कंपनी शासन के विस्तार के साथ-साथ अंग्रेज़ों ने भारतीयों के साथ अमानुषिक व्यवहार करना प्रारंभ कर दिया।

भारत में तेज़ी से फैल रही पश्चिमी सभ्यता के कारण आबादी का एक बड़ा वर्ग चिंतित था।

अंग्रेज़ों के रहन-सहन, अन्य व्यवहार एवं उद्योग-अविष्कार का असर भारतीयों की सामाजिक मान्यताओं पर पड़ता था

.4 1850 में एक अधिनियम द्वारा वंशानुक्रम के हिंदू कानून को बदल दिया गया।

ईसाई धर्म अपना लेने वाले भारतीयों की पदोन्नति कर दी जाती थी।

भारतीय धर्म का अनुपालन करने वालों को सभी प्रकार से अपमानित किया जाता था।

इससे लोगों को यह संदेह होने लगा कि अंग्रेज़ भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की योजना बना रहे हैं।

सती प्रथा तथा कन्या भ्रूण हत्या जैसी प्रथाओं को समाप्त करने और विधवा-पुनर्विवाह को वैध बनाने वाले कानून को स्थापित सामाजिक संरचना के लिये खतरा माना गया।

9. शिक्षा ग्रहण करने के पश्चिमी तरीके हिंदुओं के साथ-साथ मुसलमानों की रूढ़िवादिता को सीधे चुनौती दे रहे थे।

10 यहाँ तक कि रेलवे और टेलीग्राफ की शुरुआत को भी संदेह की दृष्टि से देखा गया।


    आर्थिक कारण

    1  भारत में कम्पनी की सभी नीतियों के मूल में भारत का आर्थिक शोषण कर अपना मुनाफा बढ़ाना था। इस प्रकार यह ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं भारतीय जनमानस के हितों के मध्य एक स्वाभाविक संघर्ष था। जब कम्पनी ने आर्थिक शोषण बहुत अधिक कर दिया तथा विद्रोह के लिए अन्य अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं, तब यह 1857 ई. के विद्रोह का कारण बनीं। इसका प्रभाव सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्रों पर पड़ा। ग्रामीण क्षेत्रों में अंग्रेजी सत्ता के प्रति असन्तोष के लिए कारणों को दो रूपों में देख सकते हैं—भूमि की उत्पादन क्षमता से अधिक लगान दर एवं भूमि को निजी सम्पत्ति बनाने से इस पर अधिकार के हस्तान्तरण की सुविधा ।

    2  1856 के भूमि प्रबन्धन अधिनियम से अवध के ताल्लुकेदारों के समस्त अधिकार समाप्त कर दिए गए। जमींदारों एवं किसानों को नई व्यवस्था के अनुसार लगान चुका पाना असम्भव-सा प्रतीत हो रहा था, जिसके परिणामस्वरूप इनकी कृषि भूमि प्रायः नीलाम कर दी जाती थी। भारत से इंग्लैण्ड को निर्यात होने वाले मलमल एवं कैलिको सूती पर, जहाँ क्रमश: 27% 71% एवं रेशमी कपड़ों पर 90% कर लिया जाता, वहीं भारत में आने वाले अंग्रेज़ी सूती और रेशमी वस्त्र पर 3.5% और गर्म कपड़े पर 2% कर था। अंग्रेज़ों की इस नीति का परिणाम यह हुआ कि इंग्लैण्ड में भारत का सूती और रेशमी कपड़ा जाना बन्द हो गया। इसका भारत के कपड़ा उद्योग पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

    . 3 औद्योगिक क्षेत्र की इन सभी नीतियों का कृषि क्षेत्र पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा और कृषि पर भार बढ़ा, जिसने कृषकों को जो पहले से ही लगान चुका पाने की समस्या से गुजर रहे थे, उन्हें कृषि छोड़ने पर मजबूर कर दिया। भारत में इसके परिणामस्वरूप भीषण अकालों के दौर देखे गए। 1770 से 1857 ई. के मध्य भारत में 12 बड़े एवं छोटे अनेक अकाल पड़े

    सैनिक कारण

    यद्यपि 1857 ई. के विद्रोह में सिपाहियों एवं कृषको की इन भूमिकाओं को अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता, क्योंकि हर सैनिक अपने गाँव से जुड़ा था। गाँव की हर समस्या उसकी अपनी समस्या थी, लेकिन सैनिकों की कुछ विशिष्ट शिकायतें भी थीं, जो निम्न प्रकार से  हैं

    1 • सैनिक भत्ते में भेद भाव - एक भारतीय सैनिक सेवा काल में अधिकतम ₹ 174 ही वेतन पा सकता था, जबकि यूरोपीय सैनिक प्रारम्भ में ही इतना वेतन प्राप्त कर लेता था। 1856 ई. में सेना में लगभग 2,38,000 भारतीय सैनिक तथा 45,322 यूरोपीय सैनिक थे, परन्तु सेना के कुल व्यय का 50% से अधिक भाग यूरोपीय सैनिकों पर खर्च किया जाता था।


    2• सामान्य सेना भर्ती अधिनियम- 1856 के सामान्य सेना भर्ती अधिनियम के अन्तर्गत सैनिकों को कहीं भी भेजा जा सकता था।

    3•विदेशी सेवा भत्ता देने से इनकार  -   सैनिकों को बिना भत्ते के दूर भेजा जाता था; जैसे— पंजाब एवं सिन्ध में लड़ते समय अंग्रेज़ों ने विदेशी सेवा भत्ता देने से इनकार किया।

    4•निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त करना   - 1854 में डाकघर अधिनियम द्वारा सैनिकों की निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त कर दी गई।


    तात्कालिक कारण

    चर्बी लगे कारतूसों के प्रयोग को 1857 ई. के विद्रोह का तात्कालिक कारण माना जाता है। कैनिंग के काल में 1857 ई. में सैनिकों के प्रयोग के लिए पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन बैस के स्थान पर एनफिल्ड रायफल का प्रयोग शुरू करवाया, जिसमें कारतूसों को लगाने से पूर्व दाँतों से खींचना पड़ता था। सैनिकों में यह अफवाह फैल गई कि कारतूसों में गाय और सुअर दोनों की चर्बी लगी है, इसलिए हिन्दू और मुसलमान दोनों भड़क उठे, जिसके परिणामस्वरूप 1857 ई. के विद्रोह की शुरुआत हुई।

    1857 ई. का  विद्रोह के स्वरूप सम्बन्धी मत

         विचारक                                 मत 


    1.  बी.डी. सावरकर                  भारत का प्रथम एवं सुनियोजित स्वाधीनता संग्राम

    2. एस बी चौधरी                       स्वतन्त्रता का प्रथम युद्ध

    3. जेम्स आउट्रम एवं                  अंग्रेजों के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम षड्यन्त्र
       एवं डब्ल्यू टेलर

    4.एल ई आर रीज                     धर्मान्धों का ईसाइयों के विरुद्ध युद्ध

    5.टी आर होम्ज                       बर्बरता एवं सभ्यता के बीच युद्ध

    6.बेन्जामिन डिजरेली              राष्ट्रीय विद्रोह, सचेत संयोग का परिणाम, सुनियोजित

    7.अशोक मेहता                     राष्ट्रीय विद्रोह

    8.सर जॉन लॉरेन्स, और         पूर्णतः सिपाही विद्रोह
    सीले ट्रेविलियन, होम्ज

    9.आर सी मजूमदार                   यह तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम, न तो प्रथम, न ही राष्ट्रीय तथा न ही                                                    स्वतन्त्रता संग्राम था

    10.मार्क्सवादी विचारक                सैनिक एवं कृषक का प्रजातान्त्रिक गठजोड़, जो विदेशी तथा सामन्तशाही                                                            दासता  से मुक्ति चाहता था

    11.कार्ल मार्क्स                           प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम



    विद्रोह का प्रारम्भ

    1 • 1857 ई. का विद्रोह स्वतःही  अनियोजित था या यह किसी सुनियोजित का परिणाम था, इस बारे में इतिहासकार एकमत नहीं है। इस विद्रोह से सम्बन्धित समस्त उपलब्ध दस्तावेज ब्रिटिश स्रोतों पर आधारित है।
    विद्रोहियों का कोई दस्तावेज नहीं मिला है। कुछ इतिहासकार इसे सुनियोजित मानते हैं तथा इसके लिए लाल कमल तथा चपाती को विद्रोह के चिह्न के रूप में वितरित करने की कथा कहते हैं, परन्तु इसके कोई साक्ष्य नहीं मिले है। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार इसे स्वतः स्फूर्त विद्रोह मानते हैं।

    2 • 1857 के विद्रोह के समय भारत का गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग एवं ब्रिटिश प्रधानमन्त्री बिस्कार पामस्टन था। 
     विद्रोह का प्रारम्भ बैरकपुर (बंगाल) से हुआ। यहाँ चर्बी वाले कारतूस का विरोध करते हुए 34वीं नेटिव इन्फैण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डेय ने 29 मार्च, 1857 को अंग्रेज अधिकारी सार्जेण्ट ह्यूसन को गोली मार दी एवं लेफ्टनिष्ट बाग की भी हत्या कर दी। 8 अप्रैल को मंगल पाण्डेय को फांसी दे दी गई, जो तत्कालीन गाजीपुर (अब बलिया) जिले के निवासी थे।

    3 • 24 अप्रैल, 1857 को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के 99 सिपाहियों ने वाले कारतूस का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। इनमें से 85 सैनिकों को 10 वर्ष की सजा सुनाई गई। इसके विरोध में 10 मई, 1857 की मेरठ के भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर अपने साथियों को छुड़ा लिया या दिल्ली की ओर कूच किया। 11 मई, 1857 को दिल्ली पर अधिकार करके विद्रोहियों ने मुगल शासक बहादुरशाह द्वितीय जो बहादुरशाह जफर के नाम से भी जाना जाता था, को नेता स्वीकार किया।

    1857 विद्रोह के प्रमुख केंद्र 

    1बैरकपुर -1857 के  आरम्भ 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी से हुआ। इस विद्रोह का नेतृत्व मंगल पांडे ने (३५ वीं  नेटिव इन्फेंट्री रेजिमेंट  अधिकारी ) किया। उसने चर्बी लगे कारतूसों का प्रयोग  इंकार  कर दिया तथा उसने अपने  सैनिक साथियों को ऐसा करने के लिए प्रेरित  किया। 
    2  मेरठ -मेरठ में 10 मई 1857 को जेल के ऊपर   धावा बोल दिया और  जेल में  बंद अनेक सैनिकों  को  छुड़वा लिया। मारो फिरंगी  को और हर हर महादेव के नारे गुंजने लगे।   

    3.दिल्ली -   दिल्ली में 11 मई 1857 को विद्रोह शुरू हुआ। यंहा पर विद्रोह का नेतृत्व बख्त खान ने किया। विद्रोहियों ने  लाल किले पर स्वतन्रता का झंडा फहराया और बहादुर शाह द्वितीय को भारत का सम्राट घोसित कर दिया। 

    4.कानपुर: विद्रोह का नेतृत्व पेशवा बाजी राव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने किया था।

    5.झाँसी: 22 वर्षीय रानी लक्ष्मीबाई ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। क्योंकि उनके पति की मृत्यु के बाद अंग्रेज़ों ने उनके दत्तक पुत्र को झाँसी के सिंहासन पर बैठाने से इनकार कर दिया।

    6.ग्वालियर: झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया और नाना साहेब के सेनापति तात्या टोपे के साथ मिलकर उन्होंने ग्वालियर तक मार्च किया और उस पर कब्ज़ा कर लिया।वह ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ मजबूती से लड़ी, लेकिन अंतत: अंग्रेज़ों से हार गई।ग्वालियर पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था।

    7.बिहार: विद्रोह का नेतृत्व कुंवर सिंह ने किया, जो जगदीशपुर, बिहार के एक शाही घराने से थे





    अन्य क्षेत्र 

    असम में विद्रोह का नेतृत्व वहाँ के दीवान मनीराम दत्त ने, वहाँ के अन्तिम राजा के पोते कन्दपेश्वर सिंह को राजा घोषित करके किया।

    कोटा (राजस्थान) में एक भारतीय सैन्य टुकड़ी ने विद्रोह कर अंग्रेज एजेण्ट मेजर बर्टन की हत्या कर दी।

    उड़ीसा में सम्भलपुर के राजकुमार सुरेन्द्र शाही और उज्ज्वल शाही ने विद्रोह किया।

    गंजाम में साबरों ने दण्डसेन के नेतृत्व में विद्रोह किया पंजाब में 9वीं अनियमित सेना (घुड़सवार) के वजीर खाँ ने               अजनाला में विद्रोह किया। .

    कुल्लू में राणा प्रताप सिंह और वीर सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया।

    सतारा में रंगोजी बापूजी गुप्ते ने विद्रोह का नेतृत्व किया।


    दमन और विद्रोह

    • 1857 का विद्रोह एक वर्ष से अधिक समय तक चला। इसे 1858 के मध्य तक दबा दिया गया था।
    • मेरठ में विद्रोह भड़कने के 14 महीने बाद 8 जुलाई, 1858 को लॉर्ड कैनिंग द्वारा शांति की घोषणा की गई।
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    • विद्रोह की असफलता के कारण 
    • 1857 ई. के विद्रोह के कारण भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अस्तित्व के लिए गम्भीर संकट पैदा हो गया। विद्रोह के कुछ ही वर्षों में भारत पर उनका नियन्त्रण लगभग शून्य जैसा हो गया था, लेकिन विभिन्न कारणों ने इस स्थिति को स्थायी नहीं रहने दिया। विद्रोह की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित थ
    • 1 . समन्वय एवं नेतृत्व का अभाव-विद्रोह के विभिन्न केन्द्रों में परस्पर समन्वय का अभाव था। विद्रोह के दौरान किसी केन्द्रीय संगठन का निर्माण   नहीं  किया गया। किसी स्थान पर विजय पा लेने के बाद उनके पास आगे के लिए कोई निश्चित योजना नहीं थी। यद्यपि बहादुरशाह द्वितीय को प्रतीक के रूप में नेतृत्व सौंपा गया था, लेकिन उनकी आयु इतनी अधिक थी कि वह विद्रोह को दिशा नहीं दे सके। विभिन्न नेताओं के इस संघर्ष में अपने-अपने हित थे। ब्रिटिश साम्राज्य से एक समान शत्रुता ने उन्हें एक साथ ला दिया था, परन्तु विद्रोह के समय अनेक योग्य सेनापति अंग्रेज़ों के पक्ष में शामिल थे, जिन्होंने विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

    2 . सीमित क्षेत्र तथा राष्ट्रीय भावना का अभाव

    देश का एक बहुत बड़ा भाग; जैसे- बंगाल, पंजाब, कश्मीर, उड़ीसा तथा दक्षिण भारत इससे अछूता रहा था। विद्रोह का क्षेत्र सीमित होने से इसे दबाने में अंग्रेज़ों को आसानी हुई। इस विद्रोह में 'राष्ट्रीय भावना' का पूर्णतया अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका।अनेक सिपाहियों ने भी में हिस्सा नहीं लिया, बल्कि अंग्रेज़ों की सहायता की। बम्बई तथा मद्रास की सेनाओं ने विद्रोह में अंग्रेज़ों का साथ दिया।

    3 . देशी राजाओं का अंग्रेज़ों का साथ देना

    • विद्रोह के दौरान अनेक देशी राजाओं ने कम्पनी का साथ दिया। सिखों एवं गोरखों ने कई जगह इस विद्रोह को दबाने में कम्पनी का सहयोग किया। कश्मीर में गुलाब सिंह ने अंग्रेज़ों का साथ दिया। सिन्धिया का एक मन्त्री दिनकर राव, हैदराबाद के वजीर सर सालार जंग, भोपाल की बेगम तथा नेपाल के मन्त्री जंगबहादुर ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों की सहायता की। इसके अतिरिक्त पटियाला, जीन्द्र, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने भी विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों की सहायता की।

    • इसी सन्दर्भ में कैनिंग ने टिप्पणी की थी कि "इन शासकों एवं सरदारों ने तरंगरोधकों का कार्य किया, अन्यथा इसने हमे एक झोके में ही बहा दिया होता।" विद्रोह के समय कैनिंग ने कहा था कि- “यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए, तो हमें कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा।'

    4 . सीमित संसाधन- अंग्रेज़ों की तुलना में विद्रोहियों के संसाधन सीमित थे। भारतीय सैनिक अभी भी पारम्परिक तरीकों से युद्ध कर रहे थे। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के सामने भारतीय अस्त्र-शस्त्र ठहर न सके। नाना साहब ने तो एक बार यहाँ तक कहा था कि- "यह नीली टोपी वाली राइफल तो गोली चलने से पहले ही मार देती है।" इसके अतिरिक्त अंग्रेजों ने आधुनिक संचार एवं आवागमन के साधनों का भी बेहतर उपयोग किया। एक विद्रोही सैनिक ने मरते हुए कहा था- "इस तार ने मारा गला घोट दिया।”

    5 . विद्रोह का समय से  आरम्भ होना - नाना साहब ने विद्रोह  की तिथि 31 मई 1857 निश्चित की थी परन्तु मंगल पाण्डे की  विद्रोह  पहले ही  शुरू हो गया। 

    6. समुद्र पर अंग्रेजों का नियन्त्रण (British Control over the Sea) 1857 ई. के विद्रोह के समय का समुद्र पर पूरा नियन्त्रण था। परिणामस्वरूप वह विद्रोहियों को दबाने के लिए इंग्लैण्ड से अधिक है अधिक सेना मंगवाने में सफल रहे। इसके विपरीत विद्रोहियों के पास अंग्रेतों के पास आने वाली सहायता क रोकने का कोई भी सामुद्रिक साधन नहीं था। कहा जाता है कि यदि विद्रोही लोग अंग्रेजों को समुद्र में भी प देते तो भी उन्हें पुनः भारत पर अधिकार करने की शक्ति प्राप्त थी। इस दशा में विद्रोहियों की असफलता अवश्य

    7. अंग्रेजों के अत्याचार (British Atrocities) दिल्ली विजय के पश्चात् अंग्रेजों ने विद्रोहियों पर चोर अत्याचार किए। अनेक व्यक्तियों का वध कर दिया गया तथा अनेकों को कठोर यातनाएं दी गई। जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने विद्रोहियों पर अमानुषिक अत्याचार किए। उनकी लाशों को पेड़ों अथवा बिजली के खम्बों पर लटका दिया। फलस्वरूप लोग भयभीत हो गए और विद्रोह से दूर रहने लगे।

    8. युद्ध सामग्री का अभाव —विद्रोहियों की अपेक्षा अंग्रेजों के पास युद्ध सामग्री तथा प्रशिक्षित सैनिक काफी अधिक थे परन्तु विद्रोहियों के पास न तो युद्ध सामग्री तैयार करने के लिए अंग्रेजों की भान्ति कारखाने थे और न ही प्रशिक्षण की सुविधाएं विद्रोही प्रायः पुराने शस्त्रों से ही लड़े किन्तु अंग्रे ने आधुनिक ढंग की बन्दूकों तथा तोपों से युद्ध किया। ऐसी परिस्थितियों में अंग्रेजों की विजय निश्चित थी।

    9. अंग्रेजी संचार साधन- 1857 ई० का विद्रोह भारत में कई स्थानों पर धधक उठा था, लेकिन संचार के साधनों के अभाव के कारण एक स्थान के विद्रोहियों को दूसरे स्थान पर घटित घटनाओं के विषय में जानकारी नहीं मिल पाती थी। इस प्रकार अंग्रेज सेनानायकों को हर स्थान पर घटने वाली घटनाओं के विषय में सूचना मिलती रहती थी। परिणामस्वरूप वे विद्रोह को कुचलने में सफल रहे।

    10. अंग्रेजों की कूटनीति - अंग्रेजों की कूटनीति के कारण भी 1857 ई० के विद्रोह में भारतीय अपने उद्देश्यों में असफल रहे। अंग्रेजों ने 'फूट डालो तथा राज करो की नीति अपनाई थी। उन्होंने हिन्दुओं को यह कहकर भड़काया कि मुसलमान भारत में अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे। यहाँ बात मुसलमानों की भी कही गई। अंग्रेजों ने अपनी कूटनीति के कारण ही पंजाबियों तथा गोरखों जैसे बीर लोगों का सहयोग प्राप्त किया। परिणामस्वरूप अंग्रेज़ 1857 ई० के विद्रोहियों को कुचलने में सफल रहे। ऊपरिलिखित कारणों को देखते हुए

     1857 के विद्रोह के परिणाम

    1857 ई० का विद्रोह भारतीय इतिहास को अति महत्वपूर्ण घटना थी। 1857 ई० का विद्रोह पद्यपि अपने भौतिक उद्देश्य की प्राप्ति में असफल रहा था किन्तु फिर भी इस विद्रोह के महत्वपूर्ण परिणाम निकले। इतिहासकार अशोक मेहता के अनुसार, "इस विद्रोह ने हमारे राष्ट्रीय जीवन की धारा को बदल दिया। इस विद्रोह के महत्वपूर्ण परिणामों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित अनुसार है

    1. कम्पनी के शासन का अन्त —1857 ई० के विद्रोह के परिणामस्वरूप भारत में लगभग एक शताब्दी से चले आ रहे कम्पनी के शासन का अन्त हो गया। यह शासन काफ़ी दोषपूर्ण था। परन्तु ब्रिटिश सरकार किसी ठोस आधार पर ही कम्पनी के शासन को समाप्त कर सकती थी। 1857 ई० के विद्रोह के कारण उसे यह अवसर मिल गया। सारे विद्रोह के लिए कम्पनी के कुशासन को दोषी ठहराया गया। अवसर का लाभ उठाकर भारत में कम्पनी शासन का पूर्णतया अन्त कर दिया गया।

    2. भारत का शासन इंग्लैण्ड सरकार के अधीन - भारत से कम्पनी का शासन समाप्त करते ही इंग्लैण्ड की सरकार ने 1858 ई० के अधिनियम के अन्तर्गत भारत का शासन  अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने भारत का शासन चलाने के लिए भारत सचिव की नियुक्ति की यह ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल का सदस्य होता था उसको सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक कौंसिल की भी व्यवस्था की गई। इसके 8 सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट् स्वयं करता था और शेष सात सदस्यों की नियुक्ति कम्पनी के संचालकों द्वारा की जाती थी भारत सचिव का कार्यालय लन्दन में बनाया गया, परन्तु उस पर होने वाला सारा व्यय भारत को सरकार को देना पड़ता था। भारत में सर्वोच्च ब्रिटिश शासक को उपाधि में भी परिवर्तन कर दिया गया। अब उसे गवर्नर जनरल की बजाए 'वायसराय' कहा जाने लगा।

    3. मुगल वंश का अन्त - 1857 ई० के विद्रोह के परिणामस्वरूप भारत में मुगल वंश का सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया। वैसे तो मुगल साम्राज्य औरंगजेब की मृत्यु के बाद ही पतन की ओर अग्रसर होने लगा था। फिर भी इस वंश ने किसी-न-किसी प्रकार 1857 ई० तक अपना अस्तित्व बनाए रखा। 1857 ई० के विद्रोह में अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुर शाह द्वितीय ने सक्रिय भाग लिया था। इस विद्रोह में अंग्रेत सफल रहे और मुग़ल सम्राट् को बन्दी बना लिया गया। उसे कैदी के रूप में रंगून भेज दिया गया, जहां जेल में ही 1862 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार भारत में मुगल साम्राज्य का अस्तित्व मिट


    4. पेशवा पद की समाप्ति- 1857 ई० के विद्रोह के परिणामस्वरूप भारत में पेशवा पद भी समाप्त हो गया। इस विद्रोह में पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब ने इस विद्रोह में महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। परन्तु वह पराजित हुआ और तट्ठपरान्त नेपाल चला गया। वहां से वह कभी वापस आया। इस प्रकार भारत में पेशवा पद की अपने आप ही समाप्ति हो गई।

    5. देशी राज्यों के प्रति नई नीति - 1857 ई० के विद्रोह पश्चात् अंग्रेजों ने देशी रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की नीति का त्याग कर दिया।1857 ई० के विद्रोह के बाद अंग्रेजों ने देशी राजाओं के प्रति एक नई नीति  अपनाई। अब देशी शासकों को पुत्र गोद लेने का अधिकार दे दिया गया। राजा की मृत्यु के बाद उसके गोद लिए पुत्र को उसका उत्तराधिकारी मान लिया जाता था। परन्तु साथ ही अंग्रेजों ने देशी राज्यों के आन्तरिक मामलों में अपना हस्तक्षेप भी बढ़ा दिया ताकि वहां उनका पूरा नियन्त्रण बना रहे। इसके अतिरिक्त इस विद्रोह में जिन देशी शासकों ने अंग्रेजों  का पक्ष लिया था, उन्हें प्रसन्न करने के लिए बड़ी-बड़ी उपाधियां दी गयी। 

    6. राष्ट्रीयता का उदय ---  यह विद्रोह असफल रहा. परन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं कि भारतीयों द्वारा चलाई गई स्वतन्त्रता की ज्योति बुझ गई। इसने तो भारतीयों के मन में राष्ट्रीयता का ऐसा बीज बोया जो 1947 ई० में स्वतन्त्रता रूपी पेड़ में पनपा इस विद्रोह के पश्चात् हतारों देशभक्तों ने स्वतन्त्रता प्राप्ति को अपना ध्येय बना लिया और इसे प्राप्त करके ही चैन लिया। इस विषय पर इतिहासकार, डॉ० आर० सी० मजूमदार ने ठीक ही कहा है,"अंग्रेजी दासता से मुक्ति पाने के लिए यह (1857 का विद्रोह) नवजात राष्ट्रवाद का उदाहरण रहा और इसे प्रथम स्वतन्त्रता आन्दोलन के नाम से सुशोभित किया गया।

    7. शासन में भारतीयों को सम्मिलित करना  - 1857 ई० के विद्रोह के कारण अंग्रेज भारतीयों को शासन में भागीदारी देने के लिए विवश हो गये। वास्तव में 1857 ई० के वि का एक कारण यह भी था कि भारतीय अंग्रेजी शासन में कोई अपनापन नहीं समझते थे। अतः भारतीयों का शासन में योगदान लेना आवश्यक हो गया था। इस बात को ध्यान में रखते हुए 1858 ई० में इण्डियन कौंसिल एक्ट पास कि इसके भारतीय कानून निर्माण परिषद् में भारतीयों को स्थान मिला।

    8. तोपखाना यूरोपियनों को सौंपना - इस विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों के मन में भारतीय सैनिकों के प्रति शंका और भय उत्पन्न हो गया था। अतः उनके हाथ में युद्ध-सामग्री का ऐसा कोई भी विभाग न सौंपा गया जिससे किसी विद्रोह के समय उन्हें शस्त्र प्राप्त होते रहें।अतः तोपखाना तथा गोला-बारूद आदि सारी युद्ध-सामग्री यूरोपियनों के हाथ में सौंप दी गई।

     9. विभिन्न जातियों के सिपाहियों का मेल —इस विद्रोह में एक ही जाति के सैनिकों ने राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित हो कर सक्रिय भाग लिया था। अतः अंग्रेजों ने यह निश्चय कर लिया कि कभी भी एक ही जाति के सैनिक एक हो सैनिक दल में नहीं रखे जाएंगे। परिणामस्वरूप अब सभी जातियों तथा धर्मों के सैनिकों को मिलाकर रखा जाने लगा। इस प्रकार राष्ट्रीयता की भावना को पनपने से रोका गया। सैनिकों की शेष लोगों के जीवन तथा विचारों से भी अलग रखा गया। इसके अतिरिक्त जहां तक सम्भव हो सकता था. इन लोगों को समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं तथा राष्ट्रवादी साहित्य से दूर रखा जाता था।

    10. भारतीय सेना का पुनर्गठन - 1857 ई० के विद्रोहों के पश्चात् भारतीय सेना का पुनर्गठन किया गया। अब सेना में सिखों, गोरखों तथा पठानों को अधिक-से अधिक भर्ती किया जाने लगा। उन्हें लड़ाकू जातियां घोषित किया गया। उन्होंने 1857 ई० के विद्रोह के कुचलने में अंग्रेजों को प्रशंसनीय योगदान दिया था। अवध बिहार तथा मध्य भारत के सैनिकों ने विद्रोह में भार लिया था। अतः सेना में उनकी भर्ती बन्द कर दी गई। उन्हें गैर लड़ाकू घोषित किया गया।

    11. फूट डालो तथा राज करो की नीति -1857 ई० के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए 'फूट डालो तथा राज करो की नीति को अपनाया। उन्होंने हिन्दुओं तथा मुसलमानों को एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काने का भरसक प्रयास किया। 



    1857 के विद्रोह पर लिखी गई पुस्तकें

    • विनायक दामोदर सावरकर द्वारा - द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस
    • पूरन चंद जोशी द्वारा  -रिबेलियन, 1857 ए सिम्पोज़िअम
    • जॉर्ज ब्रूस मल्लेसन द्वारा - द इंडियन म्यूटिनी ऑफ 1857
    • क्रिस्टोफर हिबर्ट द्वारा -   ग्रेट म्यूटिनी
    • इकबाल हुसैन द्वारा -    रिलिजन एंड आइडियोलॉजी ऑफ द रिबेल ऑफ 1857
    • खान मोहम्मद सादिक खान द्वारा - एक्सकवेशन ऑफ ट्रूथ: अनसुंग हीरोज़ ऑफ 1857 वार ऑफ इंडिपेंडेंस

    FAQ
    1857 की क्रांति की शुरुआत कहाँ से हुई थी?
    1857 की क्रांति कहाँ से शुरू हुई? इतिहास में क्रांति की शुरुआत 10 मई 1857 मेरठ से हुई थी ।

    1857 की क्रांति का मुख्य कारण क्या था?
    1857 के विद्रोह का प्रमुख राजनीतिक कारण ब्रिटिश सरकार की 'गोद निषेध प्रथा' या 'हड़प नीति' थी। यह अंग्रेजों की विस्तारवादी नीति थी जो ब्रिटिश भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी के दिमाग की उपज थी। कंपनी के गवर्नर जनरलों ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने के उद्देश्य से कई नियम बनाए।

    1857 की क्रांति का प्रतीक चिन्ह क्या था?
    देश के क्रांतिकारी बहादुरशाह जफर, तात्या टोपे, कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि ने बड़े सुनियोजित ढंग से क्रांति की तिथि 10 मई 'रोटी और खिलता हुआ कमल' को प्रतीक मानकर पूरे अखंड भारत में गुप्त ढंग से सूचना भेज रखी थी।

    1857 के विद्रोह का भारत पर क्या प्रभाव पड़ा?
    सिपाही विद्रोह ने हर भारतीय को अलग-अलग तरीकों से प्रभावित किया था, जिसमें इंग्लैंड में रहने वाले ब्रिटिश भी शामिल थे। ब्रिटिश सेना दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, ग्वालियर और मेरठ राज्यों को फिर से हासिल करने में सफल रही। हजारों निर्दोषों को बिना किसी वैध कारण के निर्दयतापूर्वक मार डाला गया।


    1857 की क्रांति की असफलता के क्या कारण थे?
    1857 की क्रांति में आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण क्रांतिकारी आधुनिक शस्त्रों के उपयोग से वंचित रह गए थे जो उनकी असफलता का कारण था। इस क्रांति में क्रांतिकारियों ने तलवारों एवं भालों का उपयोग किया था इसके विपरीत विरोधी ब्रिटिश सेना ने आधुनिक तोपों एवं बंदूकों का इस्तेमाल किया जिससे क्रांतिकारी कमजोर पड़ गए।

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